घास और पत्थर

एक साधक नदी के किनारे -किनारे चल रहा था अपनी मस्ती में मस्त तभी अचानक उसकी नजर नदी के बीचो-बीच पड़े पत्थर और नदी के किनारे खड़े घास पर गयी! यही सब साथ में खड़ा एक पेड़ भी देख रहा था! तभी अचानक जो साधक था वह सोचने लगा कि नदी अपनी मस्ती में मस्त बह रही है, इसे अपने प्रियतम से मिलने की तलब है और जो भी रास्ते में आ रहा है उससे पास होकर गुजर रही है! तभी उसके व्यवस्थित मन में प्रश्न कौंधा कि अगर मानव घास के तिनके के समान रहे तो वह नदी के बहाव के साथ तथा विपरीत रहकर भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है, क्योकि घास नदी के साथ तालमेल बनाकर रखता है और अपनी जड़ जमाए रहता है, परन्तु यदा-कदा नए-नए तर्ण फूटते रहते है पानी मिलता रहता है, तथा घास का विकास होता रहता है! फिर भी घास-घास ही रहती है! यदा-कदा कभी-कभार किसी पूजा मण्डप में थोड़ा प्रयोग आती है नहीं तो घास ही बनी रहती है! अर्थात यदि पूजा पाठ न हो तो उसका कोई अस्तित्व नहीं है!

अब स्वामी जी ने पास खड़े पेड़ के बारे में सोचना शुरू किया कि पेड़ ने पता नहीं कितने बसन्त देखे है और विभिन परिस्थितियो का सामना भी किया होगा, कभी पक्षी इसकी डालो पर बैठे होंगे, कभी पशुओ और यात्रियों ने इसकी छाया का आश्रय पाया होगा, साथ ही साथ नदी के कल-कल भरी ध्वनियो से गदगद रहा होगा, कभी पक्षियों का कलरव, कभी नदी किनारे मेंढको की टर-टराहट का पूरा मजा लिया होगा, सब कुछ सामान्य तथा दुरुस्त रहा होगा तभी तो इतना बड़ा हो पाया और आज भी अपने अस्तित्व पर कायम है!

तभी अचानक स्वामी जी को नदी के तलहटी में बड़े पत्थर का ध्यान आया तथा घास एवं पेड़ से तुलना करी तो पाया पत्थर तो पत्थर है इसमें न कुछ पैदा होता है ना यह किसी को कुछ देता है इसलिए इसका जीवन व्यर्थ है, नदी के रस्ते में भी अड़ा खड़ा है नदी भी इससे खरी-खोटी सुना रही होगी! परन्तु अब स्वामी जी रास्ते चलते रहे और अन्त में यह कहकर सब कुछ छोड़ दिया कि सब भगवान की मर्जी है! अब आप साधक की जगह खड़े होकर तीनों पर विचार कर सकते है कि कौन सही है!

कहानी में चार मुख्य पात्र है एक स्वामी या साधक, दूसरा घास, तीसरा पेड़ और चौथा पत्थर, सब अपनी-अपनी तरह से अपनी-अपनी परिस्थिति से मस्त है! हम अब विस्तार से चर्चा करेंगे!

  1. स्वामी जोकि आधुनिक साधक है जिसका मतलब है इधर-उधर से ज्ञान की बातें इक्कठी करना तथा उन्हें दुसरो से जोड़ना! परन्तु यह ताउम्र ज्ञान को ढोता रहता है ना तो इसका अपना स्वभाव ज्ञान और ध्यान को प्राप्त करना है और ना ही अनुभवशील बनना है, केवल कोरी निराधार बातें क्योकि इसको तीनों के बारे में सोचने का समय है परन्तु अपने बारे में नहीं सोच पाता है, इसलिए उम्रभर इधर-उधर ज्ञान बाटता फिरता है और परिणाम कुछ नहीं निकलता है!
  2. घास की तुलना अगर हम सामान्य जन से करे तो कोई बुराई नहीं है, यह अपनी मस्ती में मस्त रहता है, कभी-कभार अगल-बगल में हो रहे भजन कीर्तन का आनन्द उठता है और बस खुश रहता है कि उस से बड़ा धार्मिक तो कोई हो ही नहीं सकता है! एक दो दिन कुछ याद रहता है फिर अपने निर्वाह में मस्त है और सोचता है कि उसे तो सर्वोच्च शिखर प्राप्त हो गया है, क्योकि भजन-कीर्तन में बताया जाता है ‘सत्संग की आधी घडी तप के वर्ष हजार’ के बराबर है, वह इसी से बौराया रहता है कि सत्संग में गया था और ये जो लोग खामोखाह जप, तप, व्रत कर रहे है इनसे तो ऊपर ही हूँ!
  3. पेड़ की तुलना हम आधुनिक नामधारी समाज से करते है जोकि सोचता है कि एक या दो शब्द को बार-बार रटने से उसे परम की प्राप्ति हो जाएगी तथा अपने भरम को पोषित करता है, यह लोगो के, समाज के सभी रंगो में ढलता है, चलता है करता कुछ नहीं केवल रटा लगाता है और सोचता है उसने सारी कायनात को मुटठी में कर लिया है यहाँ तक कि मृत्यु भी इनके कहे अनुसार आ पायेगी! ऐसे बहुत से खोखले दावे प्रस्तुत किये जाते है!
  4. पत्थर की तुलना हम उस महान साधक से करते है जो अपने निजत्व और अस्तित्व करे, अपने स्वभाव को जानता है और उस पर अडिग रहता है तथा सब कुछ समर्पित कर देता है अपने परम की प्राप्ति को, ना किसी की आलोचना ना किसी का भय, बस धीरे-धीरे अपने आप को नदी की विरल धारा में घोलता रहता है और अपने को न्योछावर कर देता है, यह ना यह सोचता है कि क्या होगा, कैसे होगा, कब होगा बस लगा रहता है, धीरे-धीरे अपने आपको परम में विरक्त कर देता है और अपने परम को प्राप्त कर जाता है! अतः जो साधक निस्वार्थ अपने ध्यान में लगा रहता है किसी अन्य से तुलना नहीं करता है, दिखने में तो वह पत्थर दिखता है परन्तु असीम की प्राप्ति भी उसे ही होती है! इस कारण उसकी नियमितता है, यह कभी परिणाम की सोचता नहीं बस गति करता रहता है! थोड़ा-सा सहारा लेता है नदी से और अपने आपको सम्पूर्ण समाहित कर देता है या बलिदान कर देता है!

नदी:- नदी आप ध्यान को समझ सकते है जोकि चारो को बराबर अवसर दे रही है परन्तु समर्पित एक ही हो पाया है और नदी ने उसे ही पार पहुँचा दिया! आप सभी suchness के साधको से प्रेमपूर्ण अनुरोध है आप अपनी सजगता पर पत्थर की भांति अड़े रहे ताकि आप भी परम को प्राप्त कर सके! हम आपके आभारी रहेंगे क्योकि दीपक से दीपक जलता है, अगर एक दीपक भी जल जायेगा तो बाकियों को भी सहारा मिल जायेगा जलने में, फिर बस आनन्द ही आनन्द सर्वोच्च शिखर आपके लिए है!

सधन्यवाद!!!

Leave a Reply