संस्कार कैसे बनते है

भारतीय पांडित्य के अनुसार संस्कार माँ-बाप के द्वारा बच्चो को दिए जाते है! कुछ हद ये सही भी है! परन्तु अगर सही से देखा जाये तो संस्कार स्वयं जनित है अर्थात स्वयं पैदा होते है!

यदि हम विज्ञान को माने तो सबसे छोटी इकाई एक कोशिका है! बहुत सारी कोशिकाएं मिलकर किसी भी रूप का निर्धारण करती है, जैसे की पशु-पक्षी, कीट, मनुष्य आदि! हम मुख्या रूप से यहाँ मानव के अंदर एवं समस्त प्रकृति के अंदर कैसे संस्कार उत्पन्न होते है उनपर मनन करेंगे!

जब मानव का छोटा बच्चा {भूर्ण} जब माँ के गर्भ में होता है तो जिस प्रकार का अन्न, फल, पेय पदार्थ माँ ग्रहण करती है उन्ही से संस्कार बनते है, हम यहाँ पर अनाज में चावल और गेहूँ को लेकर चलते है, दोनों अलग-अलग तरह की परस्थितियों में पलते बढ़ते है जैसे की गेहूँ को कम पानी चाहिए और चावल को ज्यादा पानी चाहिए! अब यह अनाज किस खेत में पैदा हुआ, किन-किन परस्थितियों का सामना करना पड़ा जैसे धुप, आंधी, तूफ़ान, पशुओं तथा आस-पास में हो रही तरह-तरह की घटनाएं! इन पौधो की कोशिकाएं यह सब सूचनाएं संगृहीत करती रहती है तथा मानव की तरह ही सारी सूचनाओं को आगे पीढ़ी दर पीढ़ी बढाती रहती है!

अब देखा जाएं तो मानव शरीर भी पंच महातत्व से मिलकर बना है तथा ये पंच महातत्व किसी ना किसी रूप में कोशिकाओं का ही जोड़ रहे है! जिस-जिस प्रकार का अन्न आहार के रूप में मानव के द्वारा ग्रहण किया जाता है, उस अन्न की सभी कोशिकाएं अपनी स्मृति साथ लेकर आती है तथा शरीर के अंदर संगृहीत हो जाती है! संगृहीत  होने के बाद शरीर के अंदर होने वाली रासायनिक और मानसिक गतिविधियों के कारण सारी की सारी कोशिकाएं अपनी स्मृति के अनुसार {यानी मिलती-जुलती स्मृति} अलग-अलग समूहों में एकत्रित होकर अपनी स्मृतियों को मन के अंदर भेजती है, जिसमे मुख्यत तीन प्रकार की इच्छाएं जन्म लेती है! जोकि निम्नलिखित है:

  1. जीवित रहने की इच्छा
  2. इन्दिर्य सुख की इच्छा
  3. धन वैभव की इच्छा

अब मन उपरोक्त तीनो प्रकार की इच्छाओ के अनुसार आपके जीवन का प्रारूप तैयार करता है अर्थात आपके नियमित रूप से स्वचालित होने वाली गतिविधियों का निर्माण कर देता है, जिन्हे आप आदत कहते है! ये सारे क्रियाकलाप आपके मन द्वारा तैयार प्रारूप है!

इन सभी इच्छाओ के अधीन रहकर ही तरह-तरह के विचार एवं कल्पनाएं जनम लेती रहती है जिनमे कुछ प्राप्त होती है कुछ अधूरी रहती है! मुख्यत: रूप से सबसे पहले इच्छाओ के प्रारूप के अनुसार भाव पैदा होता है!

  1. भाव से विचार बनता है!
  2. विचार से क्रिया बनती है!
  3. क्रिया से कर्म बनता है!

कर्म से पाप एवं पुण्य का निर्धारण होता है मानसिक स्तर पर यदि आप किसी कर्म को बुरा मानते है तो वह पाप और किसी कर्म को अच्छा मानते है तो पुण्य, यह सभी आप के मनस्थिति पर आधारित रहता है कि पुण्य क्या है? और पाप क्या है?

परन्तु यहाँ आप दूसरे के बताएं पाप-पुण्य के अनुसार गतिविधियों में संलग्न रहते है जिससे आपके मनस्थिति में ठहराव की बजाय विचलन पैदा होता रहता है!

अब विचारणीय यह है कि संस्कार पैदा तो स्वयं होते है परन्तु इन्हे ध्यान के द्वारा मनस्थिति में बदलाव लाकर हम बदल भी सकते है! इसके लिए आपको पहले स्वयं पर भरोसा करना होगा और फिर आप स्वयं को सजग रहकर जानना सिख लेंगे तो आप अपने संस्कारो को बदल सकते है! इसी पर आधारित है ” मन के हारे हार, मन के जीते जीत”!

आप पिछे दिए गए अद्ध्यायो के अनुसार अपने ध्यान को बढ़ाते रहे इससे आप स्वयं जान जाएंगे कि संस्कार कैसे पैदा और बदले जाते है!

यहाँ पर आप एक छोटे से मंत्र का प्रयोग कर सकते है जोकि मात्र दो शब्दों में है! जब कभी आप उदास हो या किसी विडंबना में फसे हो तो बिलकुल शांत बैठकर दस साँसे {पेट फुलाने वाली} लेकर अपने आप को कहिए ” मैं हूँ ” तो आप स्वयं में शक्ति का नया प्रवाह पायेंगे!

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