ध्यान किसका करना है

सभी साधको को सप्रेम प्रणाम, हम आशा करते है कि अभी तक आपको स्वानन्द कि छोटी-छोटी झलकियां मिलने लग गई होगी!

दोस्तों कल ही एक नए साधक ने प्रश्न किया है कि ध्यान कैसे करे, किसका करे?

ध्यान एक विशेष कला है जोकि आपको अपने आप से मिलन करवाती है, यह कोई स्थायी वस्तु नहीं है जिससे प्राप्त किया जा सके, ना ही यह विज्ञानं है जो आपको कुछ बनाकर देगा! ध्यान एक ऐसी गहरी कला है जो आपको सम्पूर्ण संसार में स्वयं के होने का भान करवाती है!

उपरोक्त लिखित से यह तो ज्ञात हो ही गया होगा कि इसमें किसी दूसरे का कोई योगदान नहीं है इसमें स्वयं ही आप सब कुछ है!

परन्तु यही आप ने ध्यान के बारे में सुना या किया होगा तो आप आँख बंद कर कुछ ना कुछ ढूंढने कि कोशिश करते रहते है! यहाँ पर ऐसा कुछ नहीं है, यह सब ध्यान न होकर एकाग्रता है अर्थात आप किसी एक बिंदु पर अपने को केंद्रित कर सकते है!

ध्यान में आने वाली परेशानियाँ मुख्य रूप से जैसे ही आप ध्यान के बारे में सुनते हो या पढ़ते हो तो आपके ज़हन में यह प्रश्न उठता है कि इसको भी करते है परन्तु यह किया नहीं जाता इसमें होना होता है, यानी स्वयं में स्थित रहना पड़ता है और अपने को सजगता से परिपूर्ण करना होता है!

जब भी आपने देखा, सुना या फिर ध्यान के बारे में पढ़ा है तो कहीं ना कहीं शरीर के चक्रो पर ध्यान करने को कहा है जैसे मूलाधार, तीसरी आँख सहस्त्र चक्र आदि, जब कभी आप ध्यान करने बैठते है तो जो सुनी देखी और पढ़ी बातें वही आपके दिमाग में घूमती रहती है, जैसे कि अभी आप किसी के द्वारा बताया गया त्राटक कर रहे है तो इसमें तीसरी आँख पर एकाग्रता बढ़ानी होती है, अभी आप ध्यान में बैठे है और आप तीसरी आँख का ध्यान कर रहे है तभी अचानक आपके अंदर रैदास, कबीर, नानक, मीरा, दादू, कृष्ण, राम और अन्य गुरु एवं देवता दौड़ने लग जायेंगेतुरंत आप अपना केंद्र किसी न किसी की बात के कारण बदल देते है जैसे उपरोक्त में किसी भी गुरु, सन्त एक देवता की बताई चक्र या सहस्र चक्र पर भी पहुंच जाते है परन्तु आप एकाग्रता तो तीसरी आँख की बढ़ा रहे थे और आप पहुँचे हुए कही ओर है! यही कारण है जो आपको एकत्रित नहीं होने देता है!

अब इसे आपको यह तो मालूम हो ही गया है कि आप ध्यान में अपने को नहीं दूसरे को ढूंढते रहते है! कभी कृष्ण, कभी कोई सन्त दरवेश या गुरु की खोज आप ध्यान में करते रहते है, परन्तु ध्यान तो स्वयं की खोज करवाता है और आप इसका सम्पूर्ण प्रयोग दूसरों को जानने के लिए करते है जोकि आपके सारे प्रयासो को विफल करता है!

ध्यान स्वयं को जानने की कला है इसकी शुरुआत में आप छोटी-छोटी कड़िया जोड़िये जैसे कि आप पानी पी रहे है तो धीरे-धीरे पीए, खाना खा रहे है तो जैसे आपके अंदर से महसूस हो कि बस और नहीं आप वही पर बंद कर दे न कि स्वाद के चक्र में पड़कर ठूसते रहे! यदि आप शरीर की सुनने लग जायेंगे तो 24 घण्टे आप ध्यान में ही रहेंगे परन्तु आप स्वयं कि न सुनकर दूसरों का अनुसरण करते रहते है आजीवन, चलिए हम आपको स्वयं से परिचित होने के लिए कुछ नियम बताते है!

  1. हर रोज कायस्थ करे सोते वक़्त!
  2. खाना जरुरत के हिसाब से खाए और स्वयं की सुने!
  3. 24 घण्टे में कभी भी एक गिलास गरम पानी उबालकर चाय या कॉफ़ी की तरह फूंक मार-मार कर पीए!
  4. अपने पैरो, हाथो, पीठ, गर्दन सबकी सुनने जैसे पैर बताते है कि जूता ज्यादा कसा हुआ है तो ढीला कर दे, कमर बताती है ज्यादा कसाव है तो ढीला कर दे! किसी वजन को उठते है तो उतना ही उठाये जितना हाथ उठा सकते है!
  5. स्वयं सेवी बने यानी अपनी सुनने किसी दूसरे को अनुसरण न करे आप जैसे है मोठे, पतले, काले, गोरे आदि मालिक कि सर्वश्रेठ कलाकृति है आप कभी भी अपनी दूसरों से तुलना न करे और सुबह उठते है यह संकल्प ले कि I am the best {आई एम द बेस्ट} और मैं ही सर्वश्रेठ हूँ!
  6. दिन में जब कभी समय मिले तो मुक्के बनाएं अपना चुम्बकत्व अनुभव करे जो कि पीछे के अध्यायों में विधि समेत बताये जा चुके है!
  7. स्वयं को खोजे न किसी देव, गुरु और सन्त को आप अपने गुरु स्वयं है जब आप शरीर कि सुननी शुरू कर देंगे तो समस्त सृष्टि आपके साथ जुड़ जाएगी और आपका शरीर स्वयं आपके सभी चीजों से परिचित करवाता आगे बढ़ जायेगा!

कैसे बनती है स्वर्ण रक्त कोशिकाएं

आप सभी को यह तो ज्ञात है कि शरीर में दो तरह की कोशिकाएं होती है एक श्वेत रक्त कोशिका और दूसरी लाल रक्त कोशिका! श्वेत रक्त कोशिकाएं शरीर रक्षा प्रणाली को संभालती है और लाल रक्त कोशिकाएं बाकी गतिविधियों का संचालन करती है! परन्तु एक तीसरी प्रकार की कोशिका भी शरीर में बनती है वह है स्वर्ण रक्त कोशिका (गोल्डन शैल) यह कोशिका सभी शरीर में नहीं होती है जन्मजात परन्तु इसे पैदा किया जा सकता है यह आपका “पावर बैंक”है!

आप यह तो मानते है कि हर एक कोशिका का जीवन चक्र मात्र तीन सेकण्ड है और कुछ का एक दिन भी है परन्तु आपको यह भी ज्ञात  होगा कि आपका शरीर अनगिनत कोशिकाओं का जोड़ है तो जितनी भी कोशिकाएं शरीर में होती है उन सभी में प्राण गति करता है और आपके दिमाग के द्वारा कन्ट्रोल अलग-अलग कोशिकाओं को हर तीन सेकण्ड में थमा दिया जाता है! अर्थात आप हर तीन सेकण्ड में अपना केंद्र बदलते है! आप इस प्रक्रिया को देख नहीं सकते परन्तु इसकी तुलना स्वयं से कर सकते है, जिस प्रकार मानव की औसत आयु लगभग 80 वर्ष के करीब और मुख्यत: 80 वर्ष में स्वयं पैदा होता है, बढ़ता है और अपने जैसी संतति पैदा करके मर जाता है! यही कार्य एक कोशिका मात्र तीन सेकण्ड में करती है तो आप जान ले कि कितनी तेज प्रक्रिया है! आपका 80 वर्ष = कोशिका का तीन सेकण्ड! इसी कारण कहा जाता है “करे कोई और भरे कोई” क्योकि जहाँ पर केंद्र होता है शरीर का संचालन वही से होता है और उस कोशिका के संस्कार भी उसके साथ होते है तथा वह उन्ही के अनुरूप कार्य करती है मात्र तीन सेकण्ड में यह अपना काम कर देती है चाहे वह अच्छा/बुरा कुछ भी हो, तीन सेकण्ड बाद आपका केंद्र बदलता है तो आपकी दूसरी कोशिका बताती है कि यह गलत हुआ है और मन को सन्देश दिया जाता है अब यह अन्य कोशिकाओं का आपसी संवाद व्यवस्थित करता है और आपको महसूस होता है थोड़ी देर ठहर जाता तो ये-ये न होता! फिर आपको आभास होता है कि अब इससे कैसे बहार निकला जाये यही कारण है “करता कोई है और भरता कोई है!”

इसी तरह आजीवन कोशिकाएं बनती रहती है मिटतीरहती है! परन्तु आप सोच रहे होंगे गोल्डन शैल का ज़िक्र तो आया ही नहीं, तो आप चिन्तित ना हो!

जब आप ध्यान करते है तो उस समय कोशिका के पास केंद्र कन्ट्रोल होता है, ध्यान की सजगता द्वारा वह कोशिका विशेष रूप धारण कर लेती है अर्थात वह स्वयं को एक शक्ति आबंध के साथ ढक लेती है और वह जन्म-मरण से परे हो जाती है! इस कोशिका का रंग श्वेत व लाल कोशिकाओं की तुलना में सुनहरा हो जाता है, जिससे गोल्डन शैल कहते है!

जब आप सजग होकर ध्यान करते है तो मन सीधा आपको मुख्य केंद्र से जोड़ता है और कोशिकाएं अपने अंदर समाहित सारे संस्कारो को भुला देती है जिससे उसका नियमित तीन सेकण्ड में होने वाला कार्य तब तक ध्यान रहता है ठहर जाता है और वह पूर्णतया बदल जाती है! यदि आप भी इस तरह की कोशिकाएं पैदा करना चाहते है तो नियमित रूप से ध्यान करते रहे, आपके अंदर भी गोल्डन शैल बननी शुरू हो जाएगी!

जब शरीर की बहुतायत: कोशिकाएं गोल्डन शैल बन जाती है तो वह शरीर से प्राण निकलता है तो ये कभी-भी किसी शरीर को धारण नहीं करती है! ये अमर हो जाती है और पूर्ण निर्वाण को प्राप्त कर लेती है! अब यह सब आप पर केवल आप पर आधारित है कि आप क्या बनाना चाहते है? स्वयं को!

 

धन्यवाद!

शरीर खाना कैसे पचाता है

दोस्तों आप दिनभर या फिर रात को तरह-तरह का खाना खाते रहते है और वह खाना आपके शरीर में जाकर आपके शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है, तथा इसी खाने की वजह से आप विचार भी पढ़ते है! परन्तु कभी भी यह नहीं सोचा होगा कि खाने के कौन-से तत्वों की आपके शरीर को जरुरत है! जिन्होंने थोड़ा बहुत विज्ञानं के द्वारा जाना है वो है कि खाने से ग्लूकोस शरीर बनता है और फिर वही ग्लूकोस शरीर में शक्ति का संचार करता है!

परन्तु हम इस प्रकार नहीं मानते है, जहाँ तक हम सोचते है वो आपको थोड़ा हो सकता है बेतुका लगे परन्तु यह आपको मानने पर विवश जरूर कर देगा कि सही में यही कारण है!

आप यह तो मानते ही है कि खाना खाने की बाद शरीर में कुछ रासायनिक और मानसिक घटनाएं चलती है जिससे खाने को पचाया या शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है! जब हम कोई भी आहार खाते है तो वह पेट में चला जाता है, अब यह खाना तरह-तरह की खुशबुओ का जोड़ है जोकि शरीर की अंदर जाते है रासायनिक प्रक्रिया के कारण अलग-अलग प्रकार की  खुशबुओ जोकि बाहर से संगृहित हुई है! उन्हें अलग-अलग कर लिया जाता है, फिर शरीर की कोशिकाएं इन सभी खुशबुओ को ग्रहण करती है और इन्ही को खून में बदल देती है जो हमारे शरीर में शक्ति का संचार करता है! अब हम आपको बताते है कि खुशबु से ही शरीर का संतुलित विकास होता है! इसके कुछ उदाहरण है!

  1. जब कभी कोई मानव अत्यधिक बीमार रहता है तो चिकित्सक उसको कही घूमने जाने की सलाह देता है जैसे कि खेतो में, पार्क में और जहाँ कहीं भी घूमने लायक जगह हो! जब आप प्रकृति की सानिद्य में जाते है तो आप तरह तरह की खुशबुओ को हवा की माध्यम से गृहण करते है और आप तरोताजा महसूस करते है, क्योकि यहाँ आपने खाने का सुक्ष्म रूप {खुशबु} को गृहण किया है तथा जो भी व्यायाम आप कर रहे है वह सब और ज्यादा मात्रा में गृहण करवाता है! यही कारण है कि आप नियमित रूप से तारोताजा महसूस करते है!
  2. मिठाई वाली दुकान के पास कुछ समय व्यतीत करने की बाद आपकी भुख गायब हो जाती है कारण वहां पर गृहण की गयी तरह-तरह की खुशबु!

इसी खुशबु के कारण ही शहद को आयुर्वेद में सम्पूर्ण आहार का दर्जा मिला है क्योकि शहद तरह-तरह की खुश्बुओ का जोड़ है और शरीर इसको सीधा गृहण करता है!

एक छोटा सा प्रयोग आप घर पर भी कर सकते है आप अपने घर पर गमलो में छोटे-छोटे फूलो के पौधे लगाए और कुछ समय इन फूलो की बीच बैठकर अनुभव करे कैसी-कैसी सुगन्ध आ रही है और फिर आप देखे आप जो हर दिन के हिसाब से खाना खाते है वह स्वयं ही धीरे-धीरे कम हो जायेगा क्योकि आप सीधे ही इसको गृहण कर रहे है इससे आपके शरीर की ऊर्जा तो बचती ही है और धीरे-धीरे शरीर के साथ-साथ आपके मन में सजगता भी बढ़ती है!

अगर उपरोक्त आप नहीं कर पा रहे है तो एक फूल खरीद कर जैसे की गुलाब, उसको सूंघे परन्तु ध्यान रहे उस पर किसी भी प्रकार का फूल बेचने वाले ने रासायनिक रूप से तैयार किया इत्र इस्तेमाल न किया हो! आप साधारण फूल ले और फिर इसे थोड़े समय की लिए सूंघे तथा अपने अंदर बदलाव को महसूस करें!

संस्कार कैसे बनते है

भारतीय पांडित्य के अनुसार संस्कार माँ-बाप के द्वारा बच्चो को दिए जाते है! कुछ हद ये सही भी है! परन्तु अगर सही से देखा जाये तो संस्कार स्वयं जनित है अर्थात स्वयं पैदा होते है!

यदि हम विज्ञान को माने तो सबसे छोटी इकाई एक कोशिका है! बहुत सारी कोशिकाएं मिलकर किसी भी रूप का निर्धारण करती है, जैसे की पशु-पक्षी, कीट, मनुष्य आदि! हम मुख्या रूप से यहाँ मानव के अंदर एवं समस्त प्रकृति के अंदर कैसे संस्कार उत्पन्न होते है उनपर मनन करेंगे!

जब मानव का छोटा बच्चा {भूर्ण} जब माँ के गर्भ में होता है तो जिस प्रकार का अन्न, फल, पेय पदार्थ माँ ग्रहण करती है उन्ही से संस्कार बनते है, हम यहाँ पर अनाज में चावल और गेहूँ को लेकर चलते है, दोनों अलग-अलग तरह की परस्थितियों में पलते बढ़ते है जैसे की गेहूँ को कम पानी चाहिए और चावल को ज्यादा पानी चाहिए! अब यह अनाज किस खेत में पैदा हुआ, किन-किन परस्थितियों का सामना करना पड़ा जैसे धुप, आंधी, तूफ़ान, पशुओं तथा आस-पास में हो रही तरह-तरह की घटनाएं! इन पौधो की कोशिकाएं यह सब सूचनाएं संगृहीत करती रहती है तथा मानव की तरह ही सारी सूचनाओं को आगे पीढ़ी दर पीढ़ी बढाती रहती है!

अब देखा जाएं तो मानव शरीर भी पंच महातत्व से मिलकर बना है तथा ये पंच महातत्व किसी ना किसी रूप में कोशिकाओं का ही जोड़ रहे है! जिस-जिस प्रकार का अन्न आहार के रूप में मानव के द्वारा ग्रहण किया जाता है, उस अन्न की सभी कोशिकाएं अपनी स्मृति साथ लेकर आती है तथा शरीर के अंदर संगृहीत हो जाती है! संगृहीत  होने के बाद शरीर के अंदर होने वाली रासायनिक और मानसिक गतिविधियों के कारण सारी की सारी कोशिकाएं अपनी स्मृति के अनुसार {यानी मिलती-जुलती स्मृति} अलग-अलग समूहों में एकत्रित होकर अपनी स्मृतियों को मन के अंदर भेजती है, जिसमे मुख्यत तीन प्रकार की इच्छाएं जन्म लेती है! जोकि निम्नलिखित है:

  1. जीवित रहने की इच्छा
  2. इन्दिर्य सुख की इच्छा
  3. धन वैभव की इच्छा

अब मन उपरोक्त तीनो प्रकार की इच्छाओ के अनुसार आपके जीवन का प्रारूप तैयार करता है अर्थात आपके नियमित रूप से स्वचालित होने वाली गतिविधियों का निर्माण कर देता है, जिन्हे आप आदत कहते है! ये सारे क्रियाकलाप आपके मन द्वारा तैयार प्रारूप है!

इन सभी इच्छाओ के अधीन रहकर ही तरह-तरह के विचार एवं कल्पनाएं जनम लेती रहती है जिनमे कुछ प्राप्त होती है कुछ अधूरी रहती है! मुख्यत: रूप से सबसे पहले इच्छाओ के प्रारूप के अनुसार भाव पैदा होता है!

  1. भाव से विचार बनता है!
  2. विचार से क्रिया बनती है!
  3. क्रिया से कर्म बनता है!

कर्म से पाप एवं पुण्य का निर्धारण होता है मानसिक स्तर पर यदि आप किसी कर्म को बुरा मानते है तो वह पाप और किसी कर्म को अच्छा मानते है तो पुण्य, यह सभी आप के मनस्थिति पर आधारित रहता है कि पुण्य क्या है? और पाप क्या है?

परन्तु यहाँ आप दूसरे के बताएं पाप-पुण्य के अनुसार गतिविधियों में संलग्न रहते है जिससे आपके मनस्थिति में ठहराव की बजाय विचलन पैदा होता रहता है!

अब विचारणीय यह है कि संस्कार पैदा तो स्वयं होते है परन्तु इन्हे ध्यान के द्वारा मनस्थिति में बदलाव लाकर हम बदल भी सकते है! इसके लिए आपको पहले स्वयं पर भरोसा करना होगा और फिर आप स्वयं को सजग रहकर जानना सिख लेंगे तो आप अपने संस्कारो को बदल सकते है! इसी पर आधारित है ” मन के हारे हार, मन के जीते जीत”!

आप पिछे दिए गए अद्ध्यायो के अनुसार अपने ध्यान को बढ़ाते रहे इससे आप स्वयं जान जाएंगे कि संस्कार कैसे पैदा और बदले जाते है!

यहाँ पर आप एक छोटे से मंत्र का प्रयोग कर सकते है जोकि मात्र दो शब्दों में है! जब कभी आप उदास हो या किसी विडंबना में फसे हो तो बिलकुल शांत बैठकर दस साँसे {पेट फुलाने वाली} लेकर अपने आप को कहिए ” मैं हूँ ” तो आप स्वयं में शक्ति का नया प्रवाह पायेंगे!